मेरा गाँव
अपने गाँव का है एक चेहरा, डरा-डरा सा लगता है
और सावन में भी पतझड़ जैसा, झरा-झरा सा लगता है
पनघट सुना-सुनी चौपालें, धड़कन का एहसास नहीं
होली का भी हल्ला-गुल्ला मरा-मरा सा लगता है
जब पंहुचा घर के आँगन में,तुलसी ने मारा ताना
कि मुखड़ा अपना देख भला जरा-जरा सा लगता है
शाम ढली दिए की लौं में,पायल ने मुँह फेर लिया
आँखे भरी गला भी जैसे भरा-भरा सा लगता है
बूढ़ी साँसे तरस गयी थी,भोली सूरत कब देखें
आशीषों से फिर भी जिगरा,हरा-भरा सा लगता है
और सावन में भी पतझड़ जैसा, झरा-झरा सा लगता है
अपने गाँव का है एक चेहरा, डरा-डरा सा लगता है
कवि :-सुनील कुमार
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