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Wednesday, September 11, 2019

मेरा गाँव

मेरा गाँव 


 अपने गाँव का है एक चेहरा, डरा-डरा सा लगता है 
और सावन में भी पतझड़ जैसा, झरा-झरा सा लगता है 

पनघट सुना-सुनी चौपालें, धड़कन का एहसास नहीं 

होली का भी हल्ला-गुल्ला मरा-मरा सा लगता है 
जब पंहुचा घर के आँगन में,तुलसी ने मारा ताना 
कि मुखड़ा अपना देख भला जरा-जरा सा लगता है 
शाम ढली दिए की लौं में,पायल ने मुँह फेर लिया 
आँखे भरी गला भी जैसे भरा-भरा सा लगता है 
बूढ़ी साँसे तरस गयी थी,भोली सूरत कब देखें 
आशीषों से फिर भी जिगरा,हरा-भरा सा लगता है 
और सावन में भी पतझड़ जैसा, झरा-झरा सा लगता है 
अपने गाँव का है एक चेहरा, डरा-डरा सा लगता है 



छूटा मेरा गाँव            












      कवि :-सुनील कुमार 








        

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