रूह
एक चिंगारी उठी तेरे जिस्म से,जल उठा मेरा रोआँ-रोआँ
कब्र में कब का पड़ा था मैं, वहाँ भी हुआ धुआँ-धुआँ
मैं भी सुलग न जाऊँ कहीं, राख मैं भी न हों जाऊँ वहीं
धुन्ध था अंधकार था, पर था कोई खड़ा वहाँ
हैरान था पर शक था, कि कहीं वो, वो तो नहीं
अश्कों ने मेरी रूह तक को भिगो दिया
मुर्दा हूँ पर जिंदगी का एहसास जगा दिया
अब क्यों आँसु बहाते हो मैयत पे मेरे
हम थे तेरे पास तो ये कैसा सिला दिया
जा लेकर ये फूल जो हाथों में है तेरे
पल-पल जला था मैं,अब तो न जला रूह को मेरे
अब सुकून है मुझे मेरी इस जिंदगी से
भूलकर मुझे, किसी से लगा लेना सात फेरे
कवि:- सुनील कुमार
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